Monday, July 6, 2015

अपनी बात-2


पुरानी बात है कालेज के दिनों की। अदीबो की महफि़ल में बैठना अच्छा लगता था। एक बार ऐसे ही हम कुछ लड़के किसी अदीब की महफि़ल में बैठे थे। बात टैगोर की किताब ’’गीतांजलि’’ की चली। एक लड़के ने कहा कि उसने किताब पढ़ी मगर उसे यह समझ नही आया कि उस पर नोबल प्राईज़ क्यों दिया गया। तब उस अदीब ने कहा कि तुमने किताब हिन्दी में पढ़ी होगी। मैने यह किताब बंगला में पढ़ी क्योंकि यह बंगला में लिखी गई थी। लुत्फ आ गया। मैने पूछ लिया कि क्या आपको  बंगला भी आती है। तो उन्होने जवाब दिया कि किताब पढ़ने के लिए बंगला सीखी थी। मैं सोच में पढ़ गया। कुछ दिनो बाद मुझे उनके एक दोस्त से मिलने का मौका मिला। मैने उनसे ’’गीतांजलि’’ वाली बात की। उनके दोस्त ने बताया कि वह बहुत लाइक़ आदमी है। उसने तो ’’चन्द्रकांता’’ किताब पढ़ने के लिए हिन्दी भी सीखी थी। मैं हैरान रह गया कि एक किताब के लिए आदमी कैसे नई ज़ुबान सीख लेता है।
कुछ साल बाद जब मुझे लाल किताब मिली तो मैने भी किताब पढ़ने के लिए उर्दू सीखना शुरू कर दिया। कुछ अर्से बाद रफ्ता-रफ्ता उर्दू पढ़ने लगा मगर लाल किताब पढनी़ फिर भी मुश्किल थी। मगर वक्त के साथ साथ मश्क होती गई और उर्दू पर मेरी पकड़ बन गई। फिर लाल किताब पढ़ने समझने में कोई मुश्किल न रही। दिल को एक तसल्ली महसूस होने लगी। मगर आज वक्त बदल गया है। हर आदमी जल्दी में है। आगे बढ़ने के लिए छोटा रास्ता चाहता है। मेहनत के लिए वक्त भी नही है। फिर लाल किताब के नाम पर हिन्दी में कई किताबें बाज़ार में आ गई हैं। लोग भी समझदार हो गये हैं। हिन्दी वाली किताब खरीदते है और एक दो साल में लाल किताब के माहिर बन जाते हैं। फिर बड़े बड़े दावे करने लगते हैं। कुछ तो दूसरों पर नुक्ताचीनी भी करते हैं। एक बार धर्मशाला जोतिष सम्मेलन में एक आदमी ने लाल किताब के मुताबिक कोई बात कही मगर दूसरे ने उसकी बात काट दी। उसने कहा कि किताब में ऐसा नही लिखा। किसी ने मुझसे पूछ लिया कि दोनो में ठीक कौन है । मैने जवाब दिया कि दोनो ठीक हैं। पर उसकी तसल्ली न हुई उसने फिर वही सवाल किया। मैने जवाब दिया कि जो जिसने पढ़ा वो कह दिया। वो बोला मैं समझ गया कि असली किताब दोनो ने नही पढ़ी।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है पहले काबिल बनो फिर उम्मीद करो। मगर आज लोग उम्मीद ही करते है। अगर उनकी बात मान ली जाए तो खुश नही तो खफा हो जाते हैं। एक बार लुधियाना जोतिष सम्मेलन में एक सज्जन ने बताया कि उनको लाल किताब की हूबहू कापी हिन्दी में मिल गई है। गलती से मैने पूछ लिया आपको कैसे पता चला कि यह हूबहू असली किताब की कापी है । बस वह खफा हो गये। इसी तरह एक बार जालन्धर में एक सज्जन ने बताया कि वह पराशरी और के.पी. के माहिर हैं और लाल किताब का माहिर बनने के लिए मेरी मदद चाहते हैं। मगर मैने कहा कि मैं तो कोई माहिर नही हूं फिर आपकी क्या मदद कर सकता हूं। वह सज्जन भी खफा हो गये। एक मुहतरमा मेरे घर तक पहुंच गई। वह लाल किताब देखना चाहती थी। खैर मैने लाल किताब का पूरा सैट उसके आगे रख दिया। शायद उसने अपनी तसल्ली की। बाद में एक सम्मेलन में वह पांच-सात साथियों के साथ मुझसे मिली। वह चाहती थी कि मैं उनको लाल किताब जोतिष सिखा दूं। मगर मैने कहा कि मैं तो खुद सीख रहा हूं। उसे मेरी बात अच्छी न लगी। उसने कहा कि यहां तो ऐसे आदमी लाल किताब जोतिष पढ़ा रहे हैं जो खुद लाल किताब पढ़ नही सकते।
इसी तरह एक बार चार-पांच लोग मुझसे मिले । उन्होने बताया कि वो लाल किताब पर रिसर्च करना चाहते हैं जिसके लिए उनको मेरी मदद चाहिए। मैने पूछ लिया कि क्या आपके पास असली किताब है तो उन्होने बताया कि उनके पास हिन्दी वाली किताबे है तो मैने कहा कि रिसर्च तो असली किताब पर होती है। वह भी मुझसे खुश न हुये। एक आदमी ने तो हद ही कर दी। उसने मुझसे पण्डित जी की कुण्डली मांग ली। मैने उसकी मांग नज़र अन्दाज़ कर दी। बस फिर क्या था वह मेरे खिलाफ हो गया और लोगोें में मेरी बुराई करने लगा। उसको उर्दू तो आता नही मगर नकली किताब के बल बूते पर खुद को लाल किताब का माहिर समझता है। दरअसल कुछ लोगों को अपने दुख का इतना दुख नही होता जितना दूसरों के सुख का दुख होता है।
इतने साल गुज़र गये मैं आज भी लाल किताब का तालिबे इल्म हूं। मगर कुछ लोग तो नकली किताबें पढ़कर एक दो साल में लाल किताब के माहिर बन बैठे। मैं उनकी काबलियत को सलाम करता हूं। मैं मश्कूर हूं उन अदीबों का जिनसे मैने बहुत कुछ सीखा। मैं मश्कूर हूं उन हबीबों का जिन्होने मेरी हौसला अफज़ाई की। मैं मश्कूर हू उन रकीबों का जिन्होने मेरा चर्चा किया और मेरी नकल करके मेरा रूतबा बढ़ा दिया। 

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