साहिर लुधियानवी का एक शेयर है, ’’दुनिया ने तजुरवातों हवादिस की शक्ल में, जो कुछ दिया है मुझको लौटा रहा हूं मैं’’। ज़िन्दगी के तजुर्बे आदमी के दिल पर छाप छोड़ ही जाते हैं। पण्डित जी के इन्तकाल के बाद मैं लाल किताब के किसी जोतिशी की तलाश करने लगा। वैसे पण्डित जी की कमी कोई पूरी तो नही कर सकता था लेकिन तबादला-ए-ख्यालात के लिए कोई समझदार मिल जाये तो अच्छा। लिहाज़ा मैने शहर के जोतिश प्रेमियों से मिलना जुलना शुरू कर दिया। एक दिन किसी ने बताया कि शहर में एक बुड्ढा जोतिशी है। उसके पास कोई लाल पीली किताब है। जिससे वह लोगों को मूर्ख बनाता है। मैं चुपचाप सुनता रहा। बाद में मैने उस से जोतिशी अता-पता पूछ लिया। लोग उसे ज्ञानी जी कहकर बुलाते थे।
एक दिन मैं ज्ञानी जी के घर पहुंच गया। वह किसी का टेवा देख रहे थे। जब टेवे वाला चला गया तो उन्होंने मेरे आने की वजह पूछी। मैने बताया कि लाल किताब मझे आप के पास ले आई है। कुछ देर किताब की बातें होती रहीं। जब मैं वापिस आने के लिए उठा तो उन्होंने कहा कि आप आते रहिएगा। इस तरह मैं उनके पास आने जाने लगा। एक दिन वो भी मेेरे घर आये और उन्होंने मेरी किताब भी देखी। वक्त के चलते उनसे दोस्ती हो गई। इतवार को मैं एक आध घण्टा उनके साथ बिताने लगा। अक्सर लाल किताब के किसी न किसी पहलू पर बात हो जाती थी। ज्ञानी जी भी मेरी तरह पण्डित जी को अपना रहबर मानते थे। हालांकि वह पण्डित जी से कभी मिले न थे। वह ज्यादा पढ़े लिखे तो न थे पर लाल किताब पर उनकी पकड़ थी जिसकी वजह शायद उनका शौक और उर्दू ज़ुबान की जानकारी थी। शहर के कई जोतिशी लोग उनकी बुराई करते थे। मगर मैंने उनको किसी की बुराई करते नही देखा। ऐसी बात वह हंसकर टाल देते थे। सात-आठ बरस कब गुज़र गये, पता ही न चला।
एक दिन जब मैं ज्ञानी जी के घर पहुंचा तो वह किसी सोच में डूबे हुये थे। मैंने बातचीत शुरू की। उन्होंने कहा, ’’मेरे लिए कोई काम बताओ। अब मेरे पास ज्यादा समय नही रहा’’। उनकी बात सुनकर मैं हैरान रह गया। कुछ महीने बाद ही अचानक उनका इन्तकाल हो गया। शायद उनको अपनी मौत का अन्दाज़ा हो गया था। यह सन् 1989 की बात है। ज्ञानी जी की कुण्डली दिलचस्पी का सबब होगी।
जन्मः 18-6-1920
उनकी शुरू की ज़िन्दगी में तो मेहनत मुशकत ही रही। मगर 50 साला उम्र तक वह एक कामयाब जोतिशी बन गये थे। दौलत और शोहरत का साथ था। अख़बार में जोतिश पर माहवार मजमून भी लिखा करते थे। अंग्रेज़ आलिम बेकन के मुताबिक लिखना आदमी को मुकम्मल बना देता है। ज्ञानी जी एक मुकम्मल आदमी थे। उनकी कामयाबी का राज़ मेहनत ही था। मगर आज मेहनत का ज़माना नही रहा। अब तो नकल और नकली किताबों से काम चल जाता है।
एक दिन मैं ज्ञानी जी के घर पहुंच गया। वह किसी का टेवा देख रहे थे। जब टेवे वाला चला गया तो उन्होंने मेरे आने की वजह पूछी। मैने बताया कि लाल किताब मझे आप के पास ले आई है। कुछ देर किताब की बातें होती रहीं। जब मैं वापिस आने के लिए उठा तो उन्होंने कहा कि आप आते रहिएगा। इस तरह मैं उनके पास आने जाने लगा। एक दिन वो भी मेेरे घर आये और उन्होंने मेरी किताब भी देखी। वक्त के चलते उनसे दोस्ती हो गई। इतवार को मैं एक आध घण्टा उनके साथ बिताने लगा। अक्सर लाल किताब के किसी न किसी पहलू पर बात हो जाती थी। ज्ञानी जी भी मेरी तरह पण्डित जी को अपना रहबर मानते थे। हालांकि वह पण्डित जी से कभी मिले न थे। वह ज्यादा पढ़े लिखे तो न थे पर लाल किताब पर उनकी पकड़ थी जिसकी वजह शायद उनका शौक और उर्दू ज़ुबान की जानकारी थी। शहर के कई जोतिशी लोग उनकी बुराई करते थे। मगर मैंने उनको किसी की बुराई करते नही देखा। ऐसी बात वह हंसकर टाल देते थे। सात-आठ बरस कब गुज़र गये, पता ही न चला।
एक दिन जब मैं ज्ञानी जी के घर पहुंचा तो वह किसी सोच में डूबे हुये थे। मैंने बातचीत शुरू की। उन्होंने कहा, ’’मेरे लिए कोई काम बताओ। अब मेरे पास ज्यादा समय नही रहा’’। उनकी बात सुनकर मैं हैरान रह गया। कुछ महीने बाद ही अचानक उनका इन्तकाल हो गया। शायद उनको अपनी मौत का अन्दाज़ा हो गया था। यह सन् 1989 की बात है। ज्ञानी जी की कुण्डली दिलचस्पी का सबब होगी।
जन्मः 18-6-1920
उनकी शुरू की ज़िन्दगी में तो मेहनत मुशकत ही रही। मगर 50 साला उम्र तक वह एक कामयाब जोतिशी बन गये थे। दौलत और शोहरत का साथ था। अख़बार में जोतिश पर माहवार मजमून भी लिखा करते थे। अंग्रेज़ आलिम बेकन के मुताबिक लिखना आदमी को मुकम्मल बना देता है। ज्ञानी जी एक मुकम्मल आदमी थे। उनकी कामयाबी का राज़ मेहनत ही था। मगर आज मेहनत का ज़माना नही रहा। अब तो नकल और नकली किताबों से काम चल जाता है।
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